बिस्तर पर सोते वक्त जेब से सरक कर 'एक रुपये' का सिक्का गिर गया। नींद आ नहीं रही थी, करवट बदलते ही सिक्का मेरे सामने आ गया। हाथ में उठा के उसे देखा। पहले तो 'अठन्नी' लगा, लेकिन 'एक' रूपया देखते ही कन्फर्म हो गया कि 'एक रूपया' ही है।
आदमी के 'ईमान' की तरह ही 'एक रुपये' का सिक्का भी छोटा हो गया है। एक कंपनी तो एक रुपये में विडियो दिखा रही है। विडियो तो हम आज से तीस साल पहले भी एक रुपये में ही देखते थे। लेकिन वो पूरी फिल्म होती थी। अक्सर आमिता बचन (अमिताभ बच्चन) की फिल्म ही देखी जाती थी।
मुझे याद है हम तीन -चार दोस्तों ने सर्कस देखने के लिए घर वालों से एक-एक रुपये मांगे थे , एक दोस्त ने सलाह दी आज वीडियो पर 'मर्द' लगी हुई है, क्यों न सर्कस की जगह मर्द देखी जाये? मुझे छोड़ कर सब ने 'मर्द' देखी। मैंने 'मर्द' के लिए पैसे मांग कर ही 'मर्द' देखी (उस ज़माने में फिल्म के नाम पर पैसे बहुत मुश्किल से मिलते थे, हाँ! धार्मिक फिल्मों के लिए मिल जाते थे )।
पिताजी से दस पैसे मांगते हुए बड़ा भोला-सा मुहँ बनाना पड़ता था, आवाज भी तोतली बनानी पड़ती थी। कई बार तो पैसे की बजाय डांट मिलती थी ..................' पढाई-लिखाई तो है नहीं!! ....बस पैसे दे दो।' पैसे मिलने से पहले ही ऑडिट भी हो जाती थी।
कभी-कभी पिताजी का मूड अच्छा हो तो एक रुपये का सिक्का मिल जाता था। हाथ में आते ही उसको देखना और जेब में डाल कर भी उसे पकडे रखना। एक या दो दिन तक तो उसे खर्च ही नहीं कर पाते थे। दोस्तों में शान बघारते ..'देख मेरे पास एक रूप्या!!'
पिताजी से दस पैसे मांगते हुए बड़ा भोला-सा मुहँ बनाना पड़ता था, आवाज भी तोतली बनानी पड़ती थी। कई बार तो पैसे की बजाय डांट मिलती थी ..................' पढाई-लिखाई तो है नहीं!! ....बस पैसे दे दो।' पैसे मिलने से पहले ही ऑडिट भी हो जाती थी।
कभी-कभी पिताजी का मूड अच्छा हो तो एक रुपये का सिक्का मिल जाता था। हाथ में आते ही उसको देखना और जेब में डाल कर भी उसे पकडे रखना। एक या दो दिन तक तो उसे खर्च ही नहीं कर पाते थे। दोस्तों में शान बघारते ..'देख मेरे पास एक रूप्या!!'
सिक्के को हाथ में पकडे - पकडे ही नींद आ जाती थी। सतरंगे सपनों का वो संसार बिखरता था, कि आज मुकेश अंबानी खरबों की संपत्ति होते हुए भी, वैसे सपने नहीं देख पाता होगा।
एक रुपये का सिक्का |
उस एक रुपये का भी बजट बनता और बिगड़ता था। इन दिनों (गर्मियों) में दस पैसे की गुल्फी (बर्फ़ में सेक्रिन और रंग डाल कर बनाई जाती है) जरूर खाई जाती थी। एक रुपये में रूह आफ़जा डाल कर बनाई गई लस्सी ...........आज भी वो स्वाद भूला नहीं है। किसी ठेले पर बर्फ के तुकडे को कपड़ा लगा कर घिसता हुआ आदमी और 'रद्दे'
के नीचे घिसकर इकट्ठी हुई बर्फ को गोल बना कर कई रंगों से सजा कर देता
था, तो मुंह में बरबस पानी आ ही जाता था।
पिपरमेंट की गोलियाँ , गुडिया के बाल , लट्टू, फिरकी , सीटी, आदि - आदि पता नहीं कितनी चीजें ख्वाबों को पंख लगाती थीं । कागज के एक बड़े से पन्ने पर इनामों के साथ 'चिट' चिपके रहते थे, कभी-कभी उन पर भी हाथ आजमाया करते थे। अक्सर लालच में हमारी जमा-पूँजी डूब जाया करती थी। चूरन और चूरन की गोलियों के चटकारे ............हई!!! मज़ा आ जाता था। पानी की पतासी (गोल-गप्पे), कचौरी ................. यादों का सैलाब आपने साथ बहाता ले जा रहा है .........................।
पांच पैसे , दस पैसे , बीस पैसे, चवन्नी, अठन्नी, बारह आना, सोलह आना ........... हमारी सोच, ख्वाब और सपने यहीं तक थे। इससे आगे न तो हम सोच पाते थे और न ही सोचने या मांगने की इजाजत थी। मुद्रास्फीति इतनी बढ़ी की आज भिखारी भी एक रूपया नहीं लेते।
'प्रेमचंद' की कहानी 'ईदगाह' पढ़ के आज भले ही आंसू आ जाते हों , उम्र के उस दौर में वो कहानी अच्छी नहीं लगती थी। बचपन तो सिर्फ यही सोच पाता है कि, बड़ों के पास रुपयों पैसों की कोई कमी नहीं होती। प्रेमचंद का 'हामिद' वक्त से पहले बड़ा हो गया था।
एक बार रस्ते चलते चवन्नी पड़ी मिली थी, उसके बाद तो न जाने कितने दिनों तक उसी जगह पर पहुंचते ही निगाहें चौकस हो जाती थी, कि शायद कोई और (चवन्नी) मिल जाये।
गर्मियों में हम गाँव जाते थे, रेलवे स्टेशनों पर वजन तोलने वाली मशीनों के रंगीन बल्ब और बत्तियां बहुत आकर्षित करते थे। उस के ऊपर लिखा होता था ,"दस पैसे यहाँ डालें।" और दस पैसे का चित्र बना होता था। दस पैसे मांग कर ले जाते थे और बड़ी अदा से उस खांचे में डालते थे, कभी टिकट आ गया तो खुश; नहीं तो मशीन को ठोकते हुए और मुकद्दर को कोसते हुए चुप होकर बैठ जाते थे।
अक्सर बड़े रेलवे स्टेशनों पर लकड़ी के तरह-तरह के खिलौने चटक रंगों में रंगे, बेचने वाले 'कट-कट-कट -कट' की आवाज के साथ बेचते थे, लेकिन हमारे बजट से बाहर होने और पिताजी के समझाने पर भविष्य में खरीदने के लिए छोड़ दिये जाते थे।
कंचे वाली बोतल (जिसके गले में कंचा फंसा रहता था ) उस वक्त पचास पैसे और बाद में एक रुपये की आती थी। ठेले वाले से मांगते ही ठक्क!! की आवाज के साथ धुआं सा निकलता और बोतल हमारे हाथ में होती थी। देवताओं का 'सोमरस' भी हमारे पेय के सामने लज्जित हो जाता।
एक रुपये का नोट |
यादों में खोयें तो बहुत कुछ लिखा जा सकता है। चाहे कुछ भी हो व्यक्ति 'अतीतमोही' होता ही है और अपनी यादें सबको प्यारी लगती हैं। किन्तु ये भी सत्य है कि, लोगों का नजरिया और आनंद की परिभाषाएं भी बदल गई हैं। आदमी के 'मूल्य' एक रुपये की 'मूल्य' की तरह ही अपना वजूद खोते जा रहे हैं।
उस एक रुपये का भी बजट बनता और बिगड़ता था
ReplyDelete1 rupye main to pura jahan khareedne ki chahat ho jaati thi us samay par
sahi kaha fakira ji!!
ReplyDeleteबवाल हो गया जबरदस्त पोस्ट है भाई बहुत सही लिखा है व्यंग भी है मस्ती भी .. आनंद आ गया.... सर दर्द हो रहा था पढ़ते ही ठीक हो गया
ReplyDeleteधन्यवाद राकेश जी !!
Deleteनमस्कार विधान भाई ,नीरज भाई के ब्लॉग से आपका परिचय मिला ,और आपकी पोस्ट पढ़कर आँख मे आँशु आ गए। काश वो बचपन फिर लोट कर आ सकता …………………………………………।
ReplyDeleteविनय भाई आपको अच्छा लगा , थैंक्स !!
Deleteareee ye to mera dekha huaa jana pahchana sapna hai ---pyare shabd ! pata nahi tha vidhan tum yatra ke vivran ke sath kuch or bhi likh sakte ho--- bahut khushi hui padhkar ---aage k lekh bhi jaldi padhugi
ReplyDeleteदर्शन जी धन्यवाद !! आपका आशीर्वाद बना रहे !!
Deleteभाई शानदार व्यग्यात्मक संस्मरण 😍
ReplyDeleteभाई शानदार व्यग्यात्मक संस्मरण 😍
ReplyDelete