Sunday, June 12, 2011

झीलों की नगरी में!!




 नाथद्वारा के बाद हम अपने अगले पड़ाव एकलिंग जी की तरफ कूच कर गए जहाँ दुर्भाग्य से मंदिर के पट बंद हो गए थे ।

एकलिंग जी के बारे में :-

                             उदयपुर से उत्तर में नाथद्वाराकी और जाते हुए 22 कि.मी. की दूरी पर ये शिव मन्दिर मूल रूप से सन  734  में बना हुआ है।यद्यपि वर्तमान मन्दिर महाराजा रायमल(1473से1509)के शासनकाल से विद्यमान है,  यहाँ काले संगेमरमर की बनी चार  मुंह वाले शिवजी की प्रतिमा है।

वहां से हम लोग जिनदत्त सूरी जैन धर्म शाला उदयपुर के लिए चल दिए। वहां हमें   एक घंटे में तैयार होने के लिए कहा गया। हम चार लोग एक कमरे में ठहरे सो नित्यकर्म से निवृत हो कर हम लोग नाश्ते के लिए एकत्र हुए। चाय नाश्ता करने के बाद सबसे पहले सिटी पैलेस घूमने का लक्ष्य निर्धारित किया गया ।
अपनी भव्यता से खड़े इस महल को देखने की कीमत पचास रुपये है।हमे छात्र होने के नाते तीस रुपये ही चुकाने पड़े।फोटोग्राफी कैमरे की कीमत दो सौ रुपये थी, सो हमने कैमरे  बाहर डाईरेक्टर मैम और सचिव सर  के पास ही छोड़ आये। उन लोगो को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे कोई माँ-बाप अपने 70-80बच्चों के साथ घूमने आये हो। वो लोग शायद स्वास्थ्य की वजह से घूमने नहीं गए।

        इस संग्रहालय को देखने प्रति वर्ष लगभग 650,000पर्यटक आते हैं। इस संग्रहालय में बहुमूल्य पेंटिंग्स,तस्वीरें और सिसौदिया राजपूत राजाओं के शस्त्रागार हैं।

इस महल को देखने के बाद हम लोग जगदीश मंदिर गए।
जगदीश मंदिर –

यह मंदिर राजमहलों के पहले मुख्य द्वार बडीपोल से लगभग 175 गज की दूरी पर स्थित हैं। इसका निर्माण सन् 1651में महाराणा जगतसिंह प्रथम(1628-53)द्वारा किया गया था। यह मंदिर इंडो-आर्यन शैली में बना हुआ था। मंदिर में काले पत्थर से निर्मित भगवान जगदीश की भव्य मूर्ति हैं।

   जगदीश मंदिर के बाद पेट पूजा का कार्यक्रम माणिक्य लाला वर्मा पार्क के हनुमान मंदिर में था। भोजन स्वदिष्ट था। खाने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा था,लेकिन सफ़र में परेशानी के डर से ज्यादा नहीं खाया ।

भोजन उदरस्थ करने के बाद हमारी बसें  सहेलियों की बाडी की तरफ रवाना हुई ।

पांच रुपये के टिकट के साथ प्रवेश करते ही फव्वारों ने स्वागत किया .......पता नहीं क्यों सहेलियों की बाडी का वातावरण बड़ा सुखद लगता है। वृक्षों की सघन छाँव के बीच कुंड में चलते फ़व्वारे बड़े मनोहारी लगते है।करीने से कटे वृक्ष और घास हमें भी राजा होने का अहसास दे रही थी सभी ने अपने -अपने तरीके से फोटोग्राफी कराई। कुछ लड़कों के एक विदेशी बाला के साथ (जबरदस्ती चिपक के) फोटो खिचवाने  से माहौल बिगडा, लेकिन फतह सागर जाते जाते सब कुछ सामान्य हो गया। सिवाय एक लाइब्रेरियन मैडम के रूठने के।



फतेह सागर के बगल में मोती मंगरी घूमने का कार्यक्रम तय हुआ और टिकट लेकर प्रवेश कर गए।
      
       ...मोती मंगरी पर महाराणा प्रताप की चेतक पे सवार प्रतिमा ऐसी लगती है जैसे फतह सागर झील की निगरानी कर रही हो ।


मोतिमंगरी से उतरकर साथियों ने झील घूमने का प्रोग्राम बनाया 25-25 रुपये लेकर झील का एक चक्कर लगाने की बोट वाले से तय हुई 20साथी बोट में सवार होकर बड़े उत्साहित थे सबने चिल्ला चिला कर खुशी का इजहार किया । झील की यात्रा करने के बाद थोडी देर किनारे की यात्रा कर हम लोग वापस बस में सवार हो गए।

बस सुखाडिया सर्किल पर रुकी
  ….मनोहारी वातावरण के बीच सभी अपने गुटों में बँट गए। भव्य सुखाडिया सर्किल बरबस सब को अपनी और खीचता है ....साथ ही हम लोग अपनी धर्मशाला की ओर लौट गए।

शेष  अगले भाग में ....







Sunday, June 05, 2011

हम गए (माउन्ट) आबू, हो गए बेकाबू !



आखिर 20 मार्च आ गया .........

           तय कार्यक्रम के अनुसार हम शाम पॉँच बजे महाविद्यालय पहुँच गए।

               अचानक आसमान में बादलों ने अपना डेरा जमा लिया और लगे गरजने…तेज हवाओं का साथ देने बरखा रानी भी आ गयी और चैत भी सावन मय हो उठा ।  गर्मी के प्रकोप से राहत तो मिली,लेकिन मन में एक आशंका भी उठी की सहपाठियों के न आने से शैक्षणिक भ्रमण का प्रोग्राम कही रद्द न हो जाये, किन्तु   जितना मै इस भ्रमण को लेकर उत्साहित था उतने ही उत्साहित मेरे सहपाठी भी थे ...तो लगभग सभी सहपाठी आये थे।
        
                   महाविद्यालय के सचिव सर ने खुशखबरी दी की हम माउंट आबू भी जायेंगे । बरसते मौसम में मन मयूर नाच उठा, क्योंकि राजस्थान के इस एक मात्र हिल स्टेशन को देखने के लिए मै बहुत समय से लालायित था।

     भाई दिनेश के मंत्रोच्चार के बाद दोनों बसे "चेतक" और "मरुधर" सायं आठ बजे सिद्धि विनायक कॉलेज (जयपुर)के गेट से रवाना हुई ...चूँकि मेरा नंबर मरुधर में आया था सो मैंने अपनी सीट सम्भाल ली ।

              मन में एक उमंग लिए हम उदयपुर के लिए रवाना हुए हमारी पहली मंजिल नाथद्वारा में श्रीनाथ जी के दर्शन करना था तत्पश्चात आगे के कार्यक्रम तय थे।

        जयपुर के निकलते ही साथियों ने हुडदंग चालू कर दी। प्रिंसिपल जी के साथ दो गुरु जी (पुष्पेन्द्र सर और रितेन सर) हमारे साथ मरुधर में बैठे थे.....लेकिन "जवानी के ज्वार में मर्यादाओं के तटबंध टूट गए" और गुरु जी लोग भी "क्षमा बडन को चाहिए ....." की तर्ज पर मूक होकर देखते सुनते रहे।                               

       अजमेर से आगे लगभग 10-11 बजे के बीच में हमने एक ढाबे पे खाना खाया, सचिव सर  के शब्दों में "छप्पन प्रकार के व्यंजनों का स्वाद लगा"।

              वहां से गाड़ी चली तो लगा की सभी सहपाठी सो जायेंगे,लेकिन हुआ उसका उल्टा ऐसा लगा जैसे वो खाना खाने का ही इंतजार कर रहे थे और हुडदंग में और तेजी आ गयी गुरूजी लोगों के निर्देश पे थोडी देर तक हुडदंग में कमी जरूर आती थी,लेकिन फिर पिछली बार से और तेज शुरू हो जाता और चलते हुडदंग के बीच मुझे नींद आ गई।
             ………..और किसी ने "नाथद्वारा आ गया" कह कर जगाया।
मै आँख मलते हुए उठा और अपने को दुरुस्त करता हुआ बस से नीचे उतर गया। वहां से लगभग एक किलोमीटर पैदल चलकर हम श्रीनाथ जी के मंदिर पहुंचे। अभी पट खुलने में टाइम था सो हमारे प्रतिभावान साथियों ने गाना और नाचना शुरू कर दिया, उनका साथ देने कुछ   भक्त और आ गए प्रभात फेरी वालों ने झाल मंझीरे और ढोलक से शब्दों को सुर दे दिए और रितेन सर के नृत्य ने अलसाई भोर को जीवंत बना दिया .......वो समां बंधा की मज़ा आ गया। अपने नृत्य और संगीत रूपी सुमन "भगवान श्रीनाथ" के चरणों में अर्पित कर उनके दर्शन हेतु लाइन में लगे 20-25 मिनट के इंतजार के बाद पट खुले और एक धक्के के बाद हम मंदिर के प्रांगण में पहुँच गए ।
  गर्भ गृह में पहले से ही भीड़ मौजूद थी धक्का खाकर और देकर जैसे तैसे हमने श्रीनाथ जी के दर्शन किये।

शेष अगले भाग में ........