Monday, April 29, 2013

कुछ मुद्दे, जिन के बारे में सोचता रहा, कर कुछ नहीं पाया, चलो अब लिख ही लें।

मेरे आलस्य ने मुझको इतने दिन, मेरे ब्लॉग से दूर रखा। बीच-बीच में सोचा था, 'कभी लिख भी ले'  ; लेकिन सोच को शब्दों में नहीं ढाल पाया। मेरे कुछ दोस्त बहुत घूम रहे हैं और उसे हिंदी में लिख भी रहे हैं। रश्क होता है उनसे। हरी-भरी वादियों में घूम कर आते हैं। ईश्वर करे उनका घूमना बना रहे।

इधर राजस्थान में गर्मी बढ़ने लगी है। गर्मी तो पूरे देश में खास कर उत्तर भारत में बढ़ रही है , लेकिन कुछ ख़बरें मन को विचलित कर जाती है। मीडिया में अभी खबरे आ रही थी कि, महाराष्ट्र में सूखा पड़ा हुआ है, जिनमें सांगली और सतारा जिले प्रमुख हैं। अख़बार में एक खबर भी छपी थी कि, औरंगाबाद के लोग ट्रेनों के टॉयलेट से पीने का पानी भरते हैं।  खबर को इस लिंक पर चटका लगा कर देखा जा सकता है।



घर में एक बाल्टी पानी लेट्रिन में गिराते हुए भी बड़ी ग्लानी सी होती है। एक ही बाल्टी से नहा लेता हूँ। सुबह-सुबह जब ऑफिस के लिए निकलता हूँ,  तो लोगों को हाथ में नली पकडे 'तराई' करते देख मन दुखी होता है। घनिष्ठ हो तो टोक भी देता हूँ, "भाई साब फालतू पानी क्यों गिरा रहे हो?"

जैसे ही ऑफिस के लिए हाइवे पर चढ़ता हूँ, लकड़ियों और लट्ठों से भरे ट्रक जाते दिखाई देते हैं। मन में विचार आता है कि इतनी लकड़ियाँ आती कहाँ से हैं। क्या कोई सरकार नाम की चीज भी है? कोई विभाग जो इन सबकी निगरानी कर सके। आगे कुछ दूरी पर आरटीओ की गाड़ी खड़ी मिलती है। इन के सामने से सारे ट्रक निकलते हैं। खाकी वर्दी पहने आरटीओ के साथ के सिपाही रहस्यमय तरीके से, छुपे हुए से खड़े होकर ट्रक वालों से बातचीत करते हुए मिलते हैं (कागजात देखने की फार्मेलिटी जरूर खुले में की जाती है)।

ये विकास है या विनाश, कि सडकों के लिए ही लाखों पेड़ काट दिए गए।  क्या पेड़ो को काटे बिना, और पेड़ लगा  कर विकास संभव नहीं है ??

Courtesy:- Digital Agenda for Europe - European Commission
                                    

एक और चीज जो मुझे सबसे ज्यादा विचलित करती है वो है, रोज पचासों ट्रक लकड़ी के कोयले (ये तो मेरे देखते हुए हैं, बाकि कितने जाते होंगे राम जाने) का राजस्थान से दिल्ली की तरफ जाते हुए देखना। राजस्थान एक सूखा प्रदेश है। यहाँ वनस्पति और पेड़ -पौधे कम हैं। फिर कैसे ये लकड़ी के कोयले बनते हैं और सरकार तथा प्रशासन को पता तक नहीं है। क्या 'लकड़ी का कोयला माफिया' भी सक्रिय है?

दिल्ली से 'अप्पूघर' जयपुर आया या आ रहा है। लोग खुश हैं। मेरे मन में अगाध दुःख है। जिस क्षेत्र में 'अप्पूघर' बन रहा है,वो  नाहरगढ़ अभ्यारण्य के बिलकुल नजदीक है।लगभग चालीस हजार पेड़ों की बलि दी जा रही है। हजारों पशु-पक्षी बेघर हो जायेंगे या मर जायेंगे। सब खुश हैं कि अप्पूघर बन रहा है। एक मित्र हैं विष्णु लांबा जी, ये पर्यावरण के रखवाले हैं और इनको पुरस्कार भी मिल चुका है, इनसे भी कहा, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। ये भी पल्ला झाड़ गए। अब रोज पेड़ों को  कटते हुए देखता हूँ। 'अप्पूघर का बड़ा सा बोर्ड' अब चिढाता है। उस क्षेत्र का इकोलोजिकल सिस्टम ख़राब हो चुका है और हो रहा है।

इस क्षेत्र में काफी हरियाली थी , लेकिन जयपुर विकास(?)प्राधिकरण की विभिन्न योजनाओं जैसे नॉलेज सिटी, BSF का ऑफिस और रहवास योजना, अप्पूघर आदि-आदि ......ने सारी हरियाली को ख़त्म कर दिया।   

इन्सान के लालच का भयानक नमूना है, जमीनों में इन्वेस्टमेंट!! लोगों की सोच देखो, "बच्चों के भविष्य लिए इन्वेस्ट कर रहें हैं!" हजारों-लाखों बीघा जमीन सिर्फ इस लिए वीरान (पेड़-पौधे विहीन) पड़ी है की उन पर प्लॉट कट चुके हैं। बच्चों का भविष्य?  हुह!!  कैसा भविष्य???  कौन समझाए?? धरती जीने लायक रहेगी ही नहीं तो, कैसा भविष्य ??

हमारे प्राकृतिक साधनों पर उद्योगपतियों और पैसे वालों की गिद्ध निगाहें लगी हुई हैं। पानी का दोहन करके कोल्ड ड्रिंक्स और बोतल बंद पानी बेचा जाता है। कोई  नहीं पूछता कि क्यों? क्यों आप हमारे हिस्से के पानी को बेच रहे हो और लाभ आप कमा रहे हो और हमारे हिस्से में प्यास बुझाने के लिए पानी तक नहीं!!

सरकारें नियम कानून बनाती हैं सिर्फ आम आदमी को डराने के लिए। राजस्थान में पिछले दिनों दो कानून बने एक तो पॉलीथिन को लेकर और दूसरा गुटखे को लेकर। शुरू-शुरू में तो काफी धर पकड़ हुई लेकिन, अब सब टांय-टांय फिस्स। धड़ल्ले से पॉलीथिन का प्रयोग हो रहा है। पर्यावरण गया तेल लेने!!

कभी-कभी लगता है, जिन्हें हम वोट देते हैं, जिन्हें हमारे टैक्स से तनख्वाह मिलती है, ये लोग सत्ता/पद  पर काबिज होते ही आम आदमी को जानवर समझते हैं कि, जिधर चाहे, जैसे चाहे हांक लो।

किसी भी पार्टी की सरकार हो वो, 'वो' नहीं करती है, जो जनहित में हो, बल्कि वो, 'वो' करती है, जो 'वो' करना चाहती है। करना 'वो' ही चाहती है, जिसमें मेहनत कम और प्रचार ज्यादा हो। राजनेता क्यों नहीं समझ पा रहे हैं  कि हम उसी डाल को या पेड़ को काट रहें हैं जिस पर बैठे हैं।

सितम्बर, 2012 में मैंने राजस्थान के प्रतिष्ठित अख़बार के कार्यालय में फोन किया। मैंने कहा, "सर मैंने जयपुर के पास  एक गिद्ध देखा है, और वो बीमार है। आपका अख़बार इस मुद्दे को उठता है। शायद बच जाये।" शायद मेरी बात भी पूरी नहीं सुनी होगी और फोन काट दिया गया। आम आदमी होना गुनाह हो गया?? क्या हुआ जो मैं सेलिब्रिटी नहीं हूँ?? बात तो सुन सकते थे!!! बिना मतलब की बातों से अखबार रंगे रहते हैं।
शायद वो गिद्ध मर गया होगा .............................
   
      इसी गिद्ध को बचाना चाहता था मैं


लेख जारी रहेगा .........(जल्दी नहीं .....आराम से प्रकाशित होगा)