Friday, July 27, 2012

उत्तराखंड की ओर -अंतिम भाग (Uttrakhand ki or )

शुरू से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।
'उत्तराखंड की ओर- भाग पांच' वाली पोस्ट मुझसे गलती से डिलीट हो गई थी , उसी पोस्ट को पुनः लिखा गया है।  
मैं कपडे सुखाने दो बार होटल की छत पर गया था एक तो पहले और एक उस दिन, जिस दिन हमें होटल छोड़ना था। पहले दिन जब मैं छत पर गया तो मैंने एक विदेशी को हाथ में स्टील के गिलास (में चाय) लिए बैठे देखा था । थोडा अजीब लगा, लेकिन उसके 'गुड मोर्निंग' के अभिवादन से हलकी सी 'अजनबीयत' कम हुई । 

जिस दिन होटल छोड़ना था उस दिन छत पर सूखे कपडे लेने गया तो वही विदेशी फिर बैठा दिखाई दिया। वही 'गुड मोर्निंग' की पहल के साथ उसने जो पूछा उसक हिंदी में सार यही था कि, 'उर्गम' और आसपास की जगह में देखने लायक क्या-क्या है? अपन को तो कुछ पता था नहीं, नीरज भाई से मिले ज्ञान को 'बघार' दिया और यहीं गलती कर गया । 'कल्पेश्वर महादेव' भ्रम वश 'रुपकेश्वर महादेव' हो गए। नीचे आकर नीरज को वाकया बताया तो 'जाट' के 'P4 मॉडल' के दिमाग ने भी मेरी गलती पकड़ ली और 'घुमक्कड़ महाराज' की व्यंगात्मक हंसी का सामना करना पड़ा । हंसी का सामना तो कर लिया, लेकिन एक बात और दिमाग में आई कि, यार! एक विदेशी को गलत बता आया । 

चैक आउट करने नीचे आये और होटल वाले से विष्णु प्रयाग जाने का रास्ता पूछने लगे । 'चार प्रयाग' हम पहले ही कर चुके थे, विष्णु प्रयाग के दर्शन करते ही 'पांचो प्रयाग' के दर्शन का कोटा पूरा हो जाता। होटल वाले ने जब बताया कि विष्णु प्रयाग यहाँ से दस किलोमीटर दूर है, तो हमारे 'पांचवे प्रयाग' के दर्शन के मंसूबों पर पानी फिर गया । 'विष्णु प्रयाग' को भविष्य के लिए छोड़ते हुए हमने (मेरी तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था , मैं तो जहाँ नीरज ले जा रहा था वहीं जा रहा था) कल्पेश्वर महादेव जाने का फैसला किया। जोशीमठ से दस किलोमीटर दूर एक जगह है 'हेलंग'; इसी हेलंग से हिरनावती नदी के साथ एक रास्ता जाता है । हेलंग में उतर कर साधन के बारे में पूछताछ की गई तो पता चला कि, यहाँ से दो घंटे बाद उर्गम के लिए जीप जाएगी। दो घंटे का इंतजार हमारे लिए बहुत ज्यादा था ।


 मैंने नीरज से कहा, "यार क्यों न पैदल चला जाये? रास्ते में कोई साधन मिलेगा तो उसमें बैठ लेंगे। "नीरज को ये बात जंच गई और हम पैदल चल दिए कुछ दूर जाने पर मुझे कुछ याद आया और मैंने नीरज से कहा, ''यार अपन ने कुछ खाया तो है ही नहीं ।" हम लोग वापस मुड़ गए ढाबे कि ओर । 

ढाबे पर चाय और पराठों पर हाथ साफ़ कर ही रहे थे कि, होटल वाला विदेशी एक मिनी बस से उतरता दिखाई दिया । मन में हलकी सी ख़ुशी इस लिए हुई कि, दो से भले तीन हो जायेंगे और इसी ख़ुशी में मैंने उस को आवाज़ दे दी। मैं ढाबे के अन्दर था और उसे ठीक से दिखाई नहीं दिया, सो उसने समझा कि ढाबे वाला आवाज़ दे रहा है तो उसने अज़ब सी नृत्य की सी मुद्रा बनाई और उसका भाव यही था कि, ये ढाबे वाला भी मुझे बुला रहा है । थोड़ी देर बाद मैं बाहर उसके पास जाकर आया और उसे बताया कि, 'हम भी वहीँ जा रहें हैं, जहाँ वो जा रहा है।' उसने जवाब दिया कि,'वो अकेले घूमना पसंद करता है' और मैंने उसे 'ओके बाय' कह दिया। वो चाय पी कर हमसे पहले चला गया । 

जब हम वहां से चले तो अमेरिकी से पहले भी एक 50 -55 पेटे का विदेशी पुल पर करता दिख रहा था । हम लोग अपनी रफ़्तार से दृश्यों को कैमरे में पकड़ते हुए चलने लगे। नदी पुल से पार करने के बाद रास्ता उसी के साथ हो लिया और आगे चल कर एक रास्ता दायीं तरफ छोटे पुल को जा रहा था और एक रास्ता बायीं तरफ ऊपर चढ़ रहा था । मैंने नीरज से पूछा, "भाई किस तरफ ?" नीरज बोला, "रास्ता तो बायीं तरफ ऊपर चढाने वाला लग रहा है ।" हमने इंतजार करना शुरू किया, कि कोई आये और सही रास्ता बताये । थोड़ी ही देर में एक स्थानीय लड़का आता दिखाई दिया और नीरज ने 'लॉन्ग कट' के साथ 'शॉर्ट कट' भी पूछ लिया। फिर क्या नीरज ने 'शॉर्ट कट पकड़ लिया ।

 थोडा ऊपर चले ही थे कि वो 50 -55 पेटे का विदेशी सामान के साथ हांफते हुए बैठा मिला। नीरज के साथ मुझे भी हलका आश्चर्य हुआ कि जिस 'शॉर्ट कट' कि जानकारी को हम अनमोल मन रहे थे उस पर तो वो विदेशी पहले से चल रहा था। दो थके हुए मुसाफिर जब एक ही मंजिल पर चल रहें हों तो आँखों ही आँखों में बिना कुछ कहे कई बातें हो जाया करती हैं । इस विदेशी से हम लोग कुछ नहीं बोलते हुए उसे बैठा ही छोड़ कर ऊपर की ओर चढ़ने लगे। 

कुछ और ऊपर चले ही थे कि सांप कि तरह बल खाती सड़क पर एक जीप चढ़ती दिखाई दी। मैंने नीरज से कहा,'नीरज दौड़ ले जीप आ रही " मैं और नीरज लगभग हांफते हुए 'शॉर्ट कट' छोड़ कर 'लॉन्ग कट' पर गए। आती हुई जीप को हाथ दिया (उसमें ड्राइवर के अलावा एक और आदमी बैठा था) लेकिन उसमें बैठे लोगों ने उपेक्षा की नज़रों से देखा और गाड़ी बिना रुके ऊपर कि चढ़ाई चढ़ने लगी। गौर से देखा तो गाड़ी सरकारी लगी । असंवेदनशील उत्तराखंडी सरकारी गाड़ी । पीछे से खूब गलियां दी!! 

अपन फिर उसी 'शॉर्ट कट' वाले रास्ते पर आकर ऊपर चढ़ने लगे । एक छोटे पावर हाउस के पानी के लिए बनी एक सूखी पक्की नहर के अतीत की कल्पना करते हुए हम आगे बढ़ चले !! 
                                                                 सूखी पक्की नहर
अब प्यास लग आई थी । एक स्थानीय लड़का बैठा मिला। नीरज ने यहाँ से गाँव की दूरी और पानी की उपलब्धता के बारे में पूछना शुरू कर दिया । उसने बताया ऊपर गाँव में पानी मिल जायेगा । नीरज ने उस लडके का साथ पकड़ लिया और तेजी से ऊपर चढ़ने लगा मैं भी उनकी गति को पकड़ने की कोशिश करने लगा । 

एक थका देने वाली खड़ी सी चढ़ाई के बाद जब मैं ऊपर पहुंचा तो, नीरज और वो स्थानीय लड़का एक पेड़ के नीचे आराम करते मिले । मेरे वहां पहुंचते ही नीरज ने कहा ,"एक बुरी खबर है और एक अच्छी, बता कौन सी पहले सुनाऊं?" मैनें कहा," पहले बुरी सुना ।" नीरज बोला ,"गाँव में पानी नहीं है" मेरा माथा ख़राब हो गया । मैंने कहा,"यार ठीक -ठाक सा गाँव है और पूरे गाँव में पानी नहीं है?" 
और ख़ुशी की खबर कि ,"अब चढ़ाई ख़त्म हो गई है।" 

आदमी को जिस चीज की जरूरत होती है, आदमीं की निगाहें न चाहते हुए भी वहीं जाती हैं । मेरे साथ भी यही हो रहा था । मेरी नजरें लोहे के बिछे हुए पाइपों से होती हुई घरों के आसपास रखे हुए बर्तनों तक को टटोल रही थीं। पशुओं को पानी पिलाने के लिए बनाये गए हौद में पानी दिखाई दिया । मन किया की बोतल भर लूं, लेकिन सोचा क्यों न थोडा सब्र कर लिया जाये। प्यास के कारण छोटा रास्ता भी लम्बा लग रहा था । 



                                             सौन्दर्य दूर औए नजदीक से
 चलते -चलते आखिर गाँव के घर ख़तम हो गए और एक रास्ता दिखाई देने लगा । एक जगह बोर्ड लगा था और कोई सार्वजानिक भवन था, उस जगह एक औरत नल से कपडे धोती हुई दिखाई दी । अपन लपक लिए नल की ओर और बोतल में आधा पानी ही भरा था कि उसको पीना शुरू कर दिया । पानी पीने के बाद ही होश ठिकाने आये और गाँव कि सुन्दरता पर ध्यान गया । बोतलों में पानी भर कर हम लोग वहीं आराम से बैठ गए और फोटू -फाटू खींचने लगे। बोर्ड पर गाँव का नाम 'सलना' लिखा हुआ था। 

                                                              सुन्दरता पर ध्यान गया
यहाँ से अब हम धीरे-धीरे अपनी मंजिल यानि 'कल्पेश्वर महादेव' की ओर चल दिए । आगे जाने के बाद एक और बस्ती आई वहां सीमेंट से बने छतरीनुमा आश्रयस्थल में बैठ कर नीरज ने एक स्थानीय से'उर्गम'के बारे में पूछा । और उस स्थानीय से हमें पता चला कि,'उर्गम'कोई एक गाँव या जगह नहीं बल्कि बारह गावों का समूह है। उन लोकल भाई साब को 'थेंकु' बोल कर हम पंचधारा की ओर चल दिए। पंचधारा एक ऐसी जगह थी जहाँ पानी के स्रोत को पञ्च भागों में (पांडवों के नामानुसार ) विभक्त कर रखा गया था । पंचधारा के बाद नीरज ने 'मेट्रो कि स्पीड' पकड़ ली और मैंने अपनी गति और धीमी कर ली । 
                                                  नीरज ने 'मेट्रो कि स्पीड' पकड़ ली
नीरज तेजी से आगे चला जा रहा था और मैं धीरे-धीरे आँखों और कैमरे में दृश्यों को कैद करता हुआ चल रहा था । एक सुनसान सा मोड़ पार करते ही कुछ लोग नालियों की सफाई करते दिखे । जगह से ही आभास होने लगा था की, हमारी मंजिल यानी 'कल्पेश्वर महादेव' नजदीक ही हैं । 

आगे एक छोटे से मैदान में नीरज अपने जूते खोल कर बचे हुए बिस्कुटों पर अपनी घुमक्कड़ी का एहसान उतारता दिखाई दिया । पास ही पर्वतों से एक सुन्दर सा झरना गिर रहा था । मैंने नीरज से कहा ,"नीरज ट्रिपल जे ।" नीरज ने कहा, " मैं समझा नहीं ।" मैनें समझाया ,"जाट, जूते और झरना।" नीरज बोला,"एक फोटू ले।" और फोटू ले ली गई । 
                                                            जाट, जूते और झरना
मैंने भी बिस्कुटों की कुछ खेप अनिच्छा पूर्वक खाई और आगे चल दिया । 

रास्ता एक दम सुनसान सा था । वीरानी को दूर करने के लिहाज से कैमरे को साथी बनाया । लोहे के तारों पर बने पुल को पार करने के बाद भी नीरज नहीं आता दिखा तो पुल के तारों को सपोर्ट देने के लिए बने चबूतरे पर जा कर बैठ गया । कुछ समय बाद नीरज आता दिखाई दिया । 

                                                                नीरज आता दिखाई दिया
ऊपर चढ़ कर 'कल्पेश्वर महादेव' के दर्शन किये । मंदिर में एक बुजुर्ग पुजारी टाइप आदमी चद्दर तान के सो रहा था। हमारी चहल कदमी से ओढ़ी हुई चादर हटाकर देखा और हमारी चढ़ाव चढाने की ''औकात" को देखते और तौलते हुए वापस चादर ओढ़ कर सो गया । 

                                                                 कल्पेश्वर महादेव
कुछ समय बिताने के बाद हम लोग वापसी के लिए चल दिए। लोहे के तार वाला पुल पार करते ही हमें वो अमेरिकी झरने को निहारता सड़क पार बैठे दिखाई दिया। 

                                                                     'केल्विन'
हमें देख कर वो बहुत खुश हुआ,'मदर नेचर' उसके मुंह से यही निकला था । हमें ऐसे 'प्रकृति प्रेमी' बड़ी मुश्किल से दिखाई देते हैं । इतनी कठिन चढ़ाई और अनजाना देश !! झरने को मंत्रमुग्ध होकर उसका निहारना!! हम मन ही मन उसके प्रकृति प्रेम को सराह रहे थे। 

 बातचीत से पता चला की उसका नाम 'केल्विन' है और वो अमेरिका में कारपेंटर है!! एक "कारपेंटर" का प्रकृति प्रेम लाजवाब था !! उससे विदा लेकर हम वहां से चल दिए। 

रास्ते में वही विदेशी, जिसे हम नीचे छोड़ आये थे, आता दिखाई दिया। उससे भी हमने हलकी-फुलकी बात की और वो फ़्रांसिसी था । 

वापसी हमने तेज कर दी सलना गाँव आकर कुछ लोग आते दिखाई दिए । उनसे किसी साधन के बारे में पूछा तो बोले जल्दी जाओ एक पिकप जीप जाने वाली है बस फिर क्या था हमने दौड़ सी लगा दी। वहां पूछताछ की तो पता चला की जायेगी तो सही प़र सीटें फुल हैं। 
                                                     नीरज ने ऊपर अपना आसन जमा लिया
फिर क्या था नीरज ने ऊपर अपना आसन जमा लिया और मैंने भी !! जीवन में पहली बार पिकप के ऊपर बैठ कर खतरनाक पहाड़ी रास्ता प़ार कर रहे थे। मन ही मन उत्तराखंड वापसी के वादे को दुहराते हुए हमने हेलंग आकर जीप पकड़ ली और चमोली, हरिद्वार होते हुए घर!!

4 comments:

  1. मेरे पास अपकी वो पोस्ट है जिसे आप गलती से मिटा चुके हो

    ReplyDelete
    Replies
    1. अरे गजब तब तो मुझे आप से संपर्क करना चाहिए था , मेहनत बच जाती !!

      Delete
  2. बहुत बढिया वर्णन
    नीरजजाट जी के ब्लॉग पर पढने के बाद भी यहां आपके शब्दों में पढने में मजा आया

    प्रणाम

    ReplyDelete
    Replies
    1. आप जैसे लोगों का उत्साहवर्धन मुझ जैसे अलसी को लिखने के लिए प्रेरित करता रहेगा!!

      Delete