Thursday, August 11, 2011

भक्ति और सौन्दर्य का संगम है आबू !!

 धर्मशाला (उदयपुर) में रात को केम्प फायर का आयोजन किए गया, लेकिन सब इतने थक चुके थे कि अन्त्याक्षरी के अलावा किसी भी कार्यक्रम में उत्साह नहीं दिखाई दिया ...निर्देश मिला की सुबह छः बजे सभी तैयार हो कर नाश्ते के लिए मिलेंगे।


चाय नाश्ता करने के बाद हम लोग उदयपुर से 185  किलोमीटर दूर माउंट आबू की ओर चल पड़े माउंट आबू की ओर जाते हुए मेरा मन इस तरह से उत्कंठित था,जैसे किसी प्रेमी की अपनी प्रेमिका से मिलने की तीव्र उत्कंठा हो । बस में गिर्राज मीना और दिनेश शर्मा, अशोक, महेश, विजयपाल, वीरेंदर जैसे कई साथियों ने माहौल को जीवंत बनाये रखा। नाचते गाते हम लोग आखिर पहुँच ही गए ।


    ...अपनी मंजिल के करीब "तलेटी" से बस के गियर नीचे हो गए बस के इंजन ने जोर से आवाज़ करना शुरु कर दिया । यात्रा की चढाई  जैसे जैसे ऊपर हो रही थी; लोग नीचे के दृश्य को देख कर मंत्र मुग्ध हो रहे थे । शुरू की चढाई में सूखे  हुए पहाडों  ने मेरी माउन्ट आबू के बारे में पूर्व कल्पना बोध को आघात पहुंचाया । लेकिन ज्यों ज्यों हम लोग ऊपर चढ़ रहे थे हरियाली और फूलों से लदे पेडों में इजाफा हो रहा था।

 बैरियर पे हम लोगो ने साथ लाया खाना खाया।….दिलवाड़ा  पहुँचने तक  नीचे देखने पर तो ऐसा रहा था, जैसे पूरे पहाड़ को ऊपर वाले ने कैनवास बना कर चित्रकारी कर दी हो । रक्तिम पुष्पों से लदे पहाड़ पर बीच बीच में सफ़ेद बैगनी रंग के फूल वाले वृक्षों ने सौन्दर्य में चार चाँद लगा दिए …....अद्भुत नज़ारा था।


दिलवाड़ा पहुँच कर हम लोग बस से उतरकर मंदिर की ओर चले। मंदिर में लाइन में लग क़र हम लोग अन्दर पहुंचे तो मंदिर के अन्दर का दृश्य मंत्र मुग्ध करने वाला था । इन मंदिरों के बारे में जितना सुना था उससे कही ज्यादा  सुन्दर और भव्य ये मंदिर थे!!


    
दिलवाड़ा के मंदिरों में जिन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ हैं, उन से ज्यादा श्रद्धा उन मंदिरों को बनाने वाले मजदूरों और कलाकारों के प्रति उत्पन्न होती है। जिस लगन और शिद्दत से वो मंदिर बनाये गए हैं, उसके लिए उत्कृष्ट कोटि का भक्ति भाव होना जरूरी है, सिर्फ पैसे के लिए कोई भी व्यक्ति इस दर्जे की कलाकारी नहीं कर सकता!!

दिलवाड़ा जैन मंदिर के बारे में :-



(चित्र गूगल से साभार)


  "एक इमारत,सदियों पुरानी इमारत। दुनियाभर से लोग उसे देखने आते हैं। उसके दीदार के बाद क्या होता है; उसका आप अंदाजा नहीं सकते। चौंधिया जाती है उनकी आंखें!!वो बार-बार यही सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि,आखिर अब तक कहां छिपा था,ये नायाब नमूना!!!दिल को छू जाने वाली इस इमारत को तभी तो लोग कहते हैं, "दिलवाड़ा का अजूबा!"


ये दिलवाड़ा जैन मंदिर है राजस्थान के इकलौते हिल स्टेशन माउंटआबू में। तस्वीरों में आपने जो कुछ भी देखा शायद कहने की जरूरत नहीं। वाकई हस्तशिल्प का खजाना है ये मंदिर।

मंदिर का एक-एक हिस्सा ऐसा तराशा हुआ है,जैसे अभी बोल उठेगा। ऐसी खूबसूरती जिसका दीदार हर कोई करना चाहता है। कलाकृति और शिल्प का ये बेजोड़ नमूना। मंदिरकी दीवारें,खंभे सबकुछ देखकर आंखें ठहर ही जाती है। इस मंदिर का कोई भी ऐसा कोना नहीं है, जो शिल्प से नहलाया नहीं गया हो। मंदिर की एक-एक दीवारें आज अपनी कहानी बयां करती है। अपना इतिहास बताती हैं, ये दीवारें। ये वो मंदिर है, जिसका दीदार करने देश ही नहीं सात समंदर पार से भी लोग आते हैं।

सिर्फ एक नहीं बल्कि पूरे पांच मंदिरों का ये समूह हैं। सबकी अलग-अलग पहचान है। इस मंदिर से जुड़ी है कई बातें। कई कहानियां और कई मान्यताएं, जो अपने आप में अनोखी है।

माउंट आबू के आगोश में ये मंदिर आज हर किसी की आंखों का तारा बन गया है। माउंट आबू की सरजमी पर खड़ा ये मंदिर दिलवाड़ा के जैन मंदिर के नाम से जाना जाता है। यहां कुल पांच मंदिरों का समूह जरुर है लेकिन यहां के तीन मंदिर खास हैं। आपको बता दें दिलवाड़ा का ये मंदिर 48 खंभों पर टिका हुआ है। जी हां पूरे 48खंभे हैं इस मंदिर में। मंदिर की वास्तुकला और शिल्प को देखकर तो आपको अंदाजा लग गया होगा कि ऐसा नमूना शायद ही आपको दुनियाभर में देखने को मिले। तभी को कभी एक लेखक ने इस मंदिर को देखकर कहा था कि ताजमहल अपनी जगह होगा लेकिन ऐसी इमारत दुनिया में कहीं नहीं हो सकती।


 दिलवाड़ा के मंदिर के बारे में पढ़े जाने वाले कसीदे की इससे बड़ी मिसाल भला और क्या हो सकती है भले ही दिलवाड़ा का ये मंदिर दुनिया के सात अजूबों में शुमार नहीं है। लेकिन यहां के लिए ये मंदिर अजूबा है। लेकिन बदलते वक्त के साथ जैसे-जैसे दुनिया अपनी नंगी आंखों से इस मंदिर की बेमिसाल नक्काशी से दो चार हो रही है।

आवाज उठनी शुरू हो गई हैं कि इसे भी अजूबों की फेहरिस्त में जगह मिलनी ही चाहिए।

दिलवाड़ा जैन मंदिर कई नामचीन हस्तियों के दीदार का भी गवाह रहा है। देश के पहले प्रधानमंत्री और पहले राष्ट्रपति ने भी इसका दीदार किया था। इसके बाद इंदिरा गांधी और राजीव गांधी सहित कई सियासी हस्तियों ने इस मंदिर को अपनी आंखों से देखा। जाहिर है मंदिर की अदभुत कलाकृति ने उनके दिलों पर भी गहरी छाप छोड़ी।खूबसूरती और नक्काशी के इस  बेमिसाल नमूने के दीदार के बाद तो वो इतने दीवाने हुए कि दोबारा देखने की ख्वाहिश दबा नहीं पाए। वक्त की गर्द मंदिर की चमक को जरा भी फीका नहीं कर सकी। तभी तो ये आज भी उसकी तरह खड़ा है जैसे सदियों पहले था। सफेद संगमरमर से तराशा गया ये मंदिर वाकई कमाल का है। अगर इसे दुनियाभर के सात अजूबों में शामिल करने पर आवाज उठ रही है तो गलत नहीं है।

दरअसल इस मंदिर का निर्माण गुजरात के सोलंकी राजा वीरहवज के महामंत्री वस्तुपाल और उसके भाई तेजपाल ने करवाया था। इस मंदिर की देरानी-जेठानी के गोखलों की उत्कर्ष कला दुनियाभर में प्रसिद्ध है। मंदिर का निर्माण 11वीं और 12वीं शताब्दी में किया गया था। दिलवाड़ा का ये शानदार मंदिर जैन धर्म के तीर्थकरों को समर्पित है। यहां के पांच मंदिरों के समूह में विमल वसाही सबसे प्राचीन मंदिर है जिसे 1031ईसवी में तैयार किया गया। 1231 में वस्तुपाल और तेजपाल दो भाईयों ने इसका निर्माण करवाया था। उस वक्त इस मंदिर को तैयार करने में 1500कारीगरों ने काम किया था। वो भी कोई एक या दो साल तक नहीं।पूरे 14साल बाद इस मंदिर को ये खूबसूरती देने में कामयाबी हासिल हुई थी। इस मंदिर को बनवाने में जितना वक्त लगा। उससे कहीं ज्यादा इसे बनवाने में लागत लगी। जी हां थोड़ा बहुत नहीं उस वक्त करीब 12 करोड़ 53 लाख रूपए खर्च किए गए। आप सोच सकते हैं उस वक्त के बारह करोड़ तिरेपन लाख की अभी क्या कीमत हो सकती है.।इतनी लागत औऱ सालों की मेहनत के बाद आज इसकी बेमिसाल खूबसूरती उभरकर सामने आई अगर आज की तारीख में इस मंदिर की कीमत लगाई जाए।तो शायद वो अरबों खरबों में होगी।


इस मंदिर से जुड़ी है कई परंपरा। कई ऐतिहासिक और पौराणिक परंपराओं का गवाह है दिलवाड़ा जैन मंदिर। पौराणिक कथा कहती है कि भगवान विष्णु ने बालमरसिया के रूप में अवतार लिय़ा । कहा जाता है कि भगवान विष्णु का ये अवतार गुजरात के पाटन में एक साधारण परिवार के घर में हुआ। विष्णु भगवान के जन्म के बाद ही पाटन के महाराजा उनके मंत्री वस्तुपाल और तेजपाल ने माउंट आबू में इस मंदिर के निमार्ण की चाहत जाहिर की। ये बात पूरे राज्य में आग की तरह फैल गई। भगवान विष्णु के नये अवतार बालमरसिया ने भी महाराज के इस बात को सुना। और वो वस्तुपाल और तेजपाल के पास इस मंदिर की रुपरेखा लेकर पहुंच गए। तब वस्तुपाल ने कहा कि अगर ऐसा ही मंदिर तैयार हो गया तब वो अपनी पुत्री की शादी बालमरिसिया से कर देंगे। भगवान विष्णु के अवतार बालमरसिया ने इस प्रस्ताव को हाथों हाथ लिया। मंदिर को ऐसा बनाया की देखने वालों की आंखें चौधिया गई। पौराणिक कथा के अनुसार बालमरसिया की होने वाली दादीसास ने छल कर दिया और शादी करने के लिए एक और शर्त रख दी। उन्होंने शर्त रखी कि अगर एक रात में सूरज निकलने से पहले अपने नाखूनों से खुदाई कर मैदान को झील में तब्दील कर देंगे।तब वो अपनी पोती का हाथ बालमरसिया के हाथों में देंगी। जाहिर है बालमरिया भगवान विष्णु के अवातार थे और उनके लिए ये कोई मुश्किल काम नहीं था।उन्होने एक घंटे में ही ऐसा करके दिखा दिया। फिर भी बालमरसिया की होने वाली दादीसास ने अपनी पोती का विवाह उनसे नहीं किया। बाद में इस बात को लेकर भगवान विष्णु कोध्रित हो उठे और उन्होंने अपनी होने वाली दादीसास का वध कर दिया। और बाद में ये जगह कुंवारी कन्या के रुप मे मशहूर हो गई। अगर औरतें यहां आती हैं तो चूडियां चढ़ाती हैं। जबकि इस टीले पर औरतें पत्थर मारने की मान्यता है। पौराणिक कथा कहती है कि इसी जगह भगवान विष्णु ने अपनी होने वाली दादीसास का वध करके दफनाया । श्रद्धालु इस टीले पर पत्थर मारते हैं और ये जगह गवाह बनी बालमरसिया के आजीवन अविवाहित रहने की।"

{नोट:- पर्पल कलर में और इन्वर्टेड  कोमा में बंद ये लेखांश मैंने किसी ब्लॉग से लिया था किसी भाई /बहिन को पता हो तो उस ब्लॉग का पता बता दें, जिससे  मैं उस ब्लॉग के स्वामी से अनुमति लेकर धन्यवाद ज्ञापित कर सकूं और अगर उन्हें कोई आपत्ति हो तो इस लेखांश को हटा सकूं}


दिलवाडा के जैन मंदिरों की अमिट स्मृति ह्रदय में संजोये हुए हम अपनी अगली मंजिल अचल गढ़ की तरफ चल पड़े दिलवाडा के जैन मंदिरों को देख कर ऐसा लगा रहा था जैसे कोई अद्भुत स्वप्न देखा हो। बस में बैठने के बाद तंद्रा भंग हुई ….और आँखे फिर से प्रकृति का दीदार करने लगी।


अचलेश्र्वर महादेव :-
 दिलवाड़ा के मंदिरों से 8 किमी. उत्तर पूर्व में यह किला और मंदिर स्थित हैं। अचलगढ़ किला मेवाड़ के राजा राणा कुंभ ने एक पहाड़ी के ऊपर बनवाया था। पहाड़ी के तल पर 15वीं शताब्दी में बना अचलेश्वर मंदिर है जो भगवान शिव को समर्पित है। कहा जाता है कि यहां भगवान शिव के पैरों के निशान हैं। नजदीक ही 16वीं शताब्दी में बने काशीनाथ जैन मंदिर भी हैं। इस भव्य किले में कई लैन मंदिर बने हुए है। उल्लेखनीय मंदिर है - अचलेश्र्वर महादेव मंदिर(ईसवीं सन् 1412) और शांतिनाथ जैन मंदिर(ईसवीं सन् 1513) इसमें सोने की परत चढ़ी मूर्ति है।अचलेश्र्वर महादेव मंदिरके समीप मंदिकनी कुंड व परमार धारावर्ष की एक मूर्ति स्थित है।राणा कुंभा ने इस गढ़ का निर्माण चौदहवीं शताब्दी में करवाया था।

       अचल गढ़ में भगवन भोले नाथ के दर्शन कर हमारा कारवां सफ़र के अंतिम पडाव की और चल पड़ा और शाम के वक़्त सनसेट पॉइंट से ज्यादा दर्शनीय स्थल कोई हो ही नहीं सकता।


भगवान भास्कर को अस्त होने के गवाह प्रतिदिन इतने सारे लोग होगे ऐसा मैंने सोचा भी नहीं था। जैसे कोई मेला लगा हो ऐसी भीड़ वहां थी।
(चित्र गूगल से साभार)
क्या देशी क्या विदेशी सभी उस दृश्य को आँखों के साथ कैमरों में कैद कर लेना चाहते थे और जैसे ही सूर्यास्त का वक़्त नजदीक आया सैकडों फ्लैश चमक उठे और लोगों ने ना-ना भंगिमाएं बना कर अपना चित्रण करवाया ।
(चित्र गूगल से साभार)

वहाँ से हम लोगो को साढे आठ बजे की डैड लाइन के साथ नक्की झील घूमने की स्वतंत्रता मिली।

झील में हँसो की तरह सैकडों बोट और पैडल बोट विचरण कर रही थी लोग अपनी अपनी सहूलियत के हिसाब से बोट में घूमने का आनंद ले रहे थे हम लोग भी छ: जने बोट ले कर “नक्की” की गोद में उतर गए यहाँ मुझे मेरी पत्नी की बहुत याद आई, क्योंकि कोई ख़ुशी अगर बांटनी हो तो उससे नजदीक मै और किसी को नहीं पाता हूँ।

  नौका विहार के बाद मै अपने साथी ओम जी के साथ भारत माता मंदिर गया जो की नक्की झील के किनारे सबको आकर्षित कर रहा था ।

   नक्की के आनंद हम इतने सरोबार हो गए की हमे साढे आठ की डैड लाइन का ध्यान ही नहीं रहा .....फलस्वरूप लौटने पर कॉलेज प्रशासकों  की क्रुद्ध नज़रों का सामना करना पड़ा । प्रिंसिपल जी की कठोर कार्यवाही की चेतावनी का मन में कोई डर नहीं लगा, क्योंकि पूरे स्टाफ का परिवार की तरह जो व्यवहार था, इसको देख कर ऐसा नहीं लग रहा था कि,  जो वो लोग कह रहे थे, उसको अमल में लायेंगे । हाँ दुःख इतना सा था कि कॉलेज प्रशासकों  को वहां कोई भी किसी भी तरह से दुखी नहीं देखना चाहता था।
   और रात दस बजे के लगभग हम लोग अपने- अपने वाहनों में सवार हो कर लौट पड़े अपने बसेरों की ओर...
                                    
मन मंजूषा में सफ़र की अविस्मरणीय यादें सहेज कर ........



9 comments:

  1. Hamare ek dost hain Gappu Ji.
    Bhai, aap bilkul unhi ke jaise likhte ho. kya mast vrittant likha hai aapne. Lage rahiye. Apna to pata nahi kab jana hoga.

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  2. विधान चन्द्र जी,
    आपका लेख जितना लम्बा है उतना ही ज्ञान का भण्डार अपने भीतर समाये हुए है,
    आपने अपने खुद के फ़ोटो नहीं लगाये,
    और दो छोटे से फ़ोटो नहीं भाई चश्मा लगवाओगे हमारे भी क्या,
    कुछ बडे दिखाओ, तभी मजा आयेगा,
    इतना खजाना एक पोस्ट में ही निपटा दिया,
    कम से कम तीन पोस्ट का खजाना था,
    आगे से ध्यान रखना।

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  3. @संदीप जी !!उस वक्त तक मेरे पास अपना कैमरा नहीं था इस लिए अपनी खींची फोटो नहीं लगा पाया. आशा है आप मेरी मजबूरी समझ गए होंगे !!

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  4. विधान जी
    संदीप भाई ने सही कहा की तीन बार की पोस्ट आपने एक ही बार मे लगा दी... बाकि पोस्ट बहुत ही अच्छी है .. पुरे एक महीने के बाद पढने को मिली

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  5. हाँ भाई साहब !हम भी साक्षी बनें हैं इन भव्य मंदिरों के माउंट आबू ब्र्ह्माकुमारीज़ शिविरों के दौरान एकधिक बार ,नक्की झील और सन सेट पॉइंट ,पांडव भवन ,ज्ञान -विज्ञान भवन (नया परिसर )सभी कुछ देखा है .भारत में एक नहीं अनेक "दिलवाड़ा" हैं .हम अपनी विरासत और इतिहास के काश अमरीकियों की तरह दीवाने होते तो दुनिया के आधे से ज्यादा "आलमी विरासत के ताजमहल "यहीं होतें .
    यामे आज़ादी की सालगिरह मुबारक .
    http://veerubhai1947.blogspot.com/

    रविवार, १४ अगस्त २०११
    संविधान जिन्होनें पढ़ा है .....


    http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/
    Sunday, August 14, 2011
    चिट्ठी आई है ! अन्ना जी की PM के नाम !

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  6. अच्छा आलेख......

    HAPPY 15 AUGUST....

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  7. अब क्यों नहीं लिख रहे हो?

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  8. नमस्कार भाई विधान चन्द्र जी आपको व आपकी लेखनी को। क्या लिखा है वाकई मजा आ गया एसा लिखा है कि पढ़ने वाले को यह लगने लगे कि सचमुच यात्रा पर ही चल रहा है।धन्य वाद माउण्ट आबू की यात्रा कर ली आगे और भी यात्राए करते रहैंगे

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